शनिवार, 26 अगस्त 2017

न्यूज़रूम की बकैती - गुरमीत राम रहीम का न्यूज़रूम तक का सफ़र



न्यूज़रूम की बकैती

गुरमीत राम रहीम को रेप का दोषी क़रार दिए जाने के बाद काफ़ी लोग सवाल कर रहे हैं कि जो न्यूज़ चैनल्स अब तक बाबा का बड़े मज़े से न्यूज़रूम और बाबा के डेरे में जा कर इंटरव्यू किया करते थे वही अब बाबा को बल भर गरिया रहे हैं। गरियाना तो बनता है यार बबवा के समर्थक सब न्यूज़ चैनल वालों की गाड़ी, ओबी वैन जलाकर लाखों का नुक़सान कर दिए हैं। अब भी नहीं गरियाएं तो क्या करें? लेकिन इस घटनाक्रम की तैयारी पहले ही की जा चुकी थी। मगर कैसे ये जानने के लिए नीचे दी गई एक सीनियर एंकर और गेस्ट को-ऑर्डिनेशन वाले लौंडे के बीच हुई बातचीत को पढ़िए, समझ में आ जाएगा। :-

सर आप कह रहे थे ना कि आपको किसी बड़े आदमी का इंटरव्यू करना है?’
हां उदय कहा तो था, तो क्या तुमने किसी को लाइन अप किया है?’
जी सर आप सोच भी नहीं सकते कि मैंने किसे लाइन अप किया है
तो सस्पेंस क्यों क्रिएट कर रहे हो जल्दी से बताओ ना किसे लाइनअप किया है?’
सर मैंने साक्षात गॉड को.. यानी के भगवान को लाइनअप किया है, लोग उन्हें पूजते हैं सर
अच्छा! सुबह से तुम्हें कोई मिला नहीं बनाने को.. मेरा टाइम वेस्ट मत करो, काम की बात करनी हो तो बताओ वर्ना मेरा वक़्त कितना क़ीमती है ये तुम्हें भी पता है
ओके सर आप ग़ुस्सा मत होइये, मैं आपको बता ही देता हूं कि मैंने किसको लाइनअप किया है
सर मैंने सीधे मेसेंजर ऑफ़ गॉड को लाइनअप किया है
क्या बकवास है ये? तुमने ऑफ़िस टाइम में चढ़ा ली है क्या जी (सीनियर एंकर आंख तरेरते हुए उदय के क़रीब पहुंचते हैं कि कहीं शराब की स्मेल तो नहीं आ रही)
अरे नहीं सर मैं सच कह रहा हूं मैंने मेसेंजर ऑफ़ गॉड को लाइनअप किया है.. वो उड़ सकते हैं.. उनकी बाइक हवा से बातें करती है.. वो रॉकस्टार हैं.. कनसर्ट करते हैं.. गाने भी गाते हैं.. अपने कपड़े ख़ुद डिज़ाइन करते हैं.. उनके चाहने वाले तो उनके दाढ़ी से भरे चेहरे को देखते ही अपने सारे ग़म भूल जाते हैं.. उनके चेहरे पर एक अलग ही तेज है.. करोड़ों चाहने वाले हैं उनके या यूं कहिए कि करोड़ों भक्त हैं उनके..
हैं!!?? किसकी बात कर रहे हो यार? (अब एंकर मियां अपने डिबेट शो की तरह पूरे सीरियस होकर सवाल दाग़ते हैं)
अरे सर वही जिन्होंने अपने नाम से ही हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश की है नाम है उनका बाबा गुरमीत राम रहीम
अच्छा वो डेरा वाला दढ़ियल जो ख़ुद ही फ़िल्में बनाता है, ख़ुद ही उनमें एक्टिंग करता है, ख़ुद ही गाने कम्पोज़ करता है, ख़ुद ही उन्हें गाता भी है, गाने के वाहियात बोल से तो मैं शर्त लगा सकता हूं कि उन्हें लिखता भी वही होगा, प्रोड्यूस-डाइरेक्ट सब वही करता है
सर.. एडिटिंग और कैमरा भी वही देखते हैं, और कॉस्ट्यूम भी वही डिज़ाइन करते हैं
सत्यानाश
अरे सर ऐसा ना कहिए, पाप लगेगा.. वो मेसेंजर ऑफ़ गॉड हैं.. साक्षात भगवान के अवतार सर.. उनकी मूछों के बल पर तो हवा अपना रुख बदल दिया करती है। वो जब स्टेज पर पहुंचते हैं तो उनको देखने के लिए उनके करोड़ों भक्त उमड़ पड़ते हैं.. उनकी एक आवाज़ पर भक्त दुनिया की ईंट से ईंट बजाने को तैयार रहते हैं.. और आप कह रहे हैं दढ़ियल
तो उस मोटे को दढ़ियल नहीं तो क्या इश्वर काका कहूं?’
लगता है आपको उनकी शक्ति का अंदाज़ा ही नहीं है सर, उनका कहना है कि उनकी फ़िल्में देख पंजाब के लोगों ने नशा करना छोड़ दिया है और वे फ़िल्में सिर्फ़ यूथ का नशा छुड़ाने के लिए करते हैं ताकि युवा वर्ग उनकी फ़िल्में देखकर इन्सपायर हो सके
कितनों ने फ़िल्म देखकर नशा छोड़ा कोई आइडिया है?’
अरे सर इतनों ने छोड़ दिया कि अब तो आइडिया भी नहीं है
अरे मेरे भोले भास्कर, दिमाग़ साथ में लेके चला कर
हां सर आप बॉस हैं आपका मज़ाक़ उड़ाना, मज़े लेना तो बनता है.. ये तो आपका हक़ है
फिर तो तेरे एकता के प्रतीक बाबा के वर्ल्ड क्लास प्रॉडक्ट्स – घी, तेल, टूथपेस्ट, आटा वगैरह ख़रीदने से तो डायरेक्ट भगवान शिव ख़ुश हो जाते होंगे?’
तो सर रामदेव के स्वदेशी प्रॉडक्ट ख़रीदकर आप कौन सा फ़्रीडम फ़ाइटर बन रहे हैं?’
उफ़्फ़..ओह मुद्दा मत भटकाओ उदय
सॉरी सर सारी ग़लती मेरी ही थी (समझदार जूनियर वही है जो मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए सीनियर के सामने झट से अपनी हार स्वीकार करे)
हां तो अब बोलो तुम क्या कह रहे थे?’
यही सर कि उनका इंटरव्यू करने से आप पर भी कृपा बरसेगी
वो कैसे?’
वेरी सिंपल सर.. आप इंटरव्यू करेंगे, इंटरव्यू अपने न्यूज़ चैनल पर चलेगा, टीआरपी आएगी तो चैनल की रेटिंग बढ़ेगी, रेटिंग बढ़ेगी तो कमर्शियल/ऐड बढ़ेंगे.. फिर आपको सीनियर एडिटर बनने से कौन रोक पाएगा, अप्रेज़ल फॉर्म में मेजर अचीवमेंट का कॉलम भी चमक उठेगा सर (उदय कॉन्फ़िडेंट है कि अब सर को इंटरव्यू के लिए मना लूंगा)
हां यार इतनी दूर तक का तो मैंने सोचा ही नहीं, यू हैव ए नाइस विज़न, मेरे साथ रहकर तुम काफ़ी कुछ सीख गए हो (एंकर जी खुली आंखों से उदय की कही हुई बातों को इमैजिन भी कर लेते हैं)
तो सर एकता के प्रतीक उस देवदूत से फ़्राइडे का टाइम फ़िक्स कर दूं? शनि-रवि को शो रिपीट कर देंगे
वो सब तो ठीक है यार उदय लेकिन मैं ये सोच रहा था कि....
अरे सर अब क्या सोचने लगे?’
यही कि तुम्हारे उस एकता के प्रतीक मोटे दढ़ियल देवदूत पर तो रेप का केस चल रहा है, साथ ही मर्डर का भी चार्ज है
चार्ज ही तो है दोषी थोड़ी क़रार दिया है कोर्ट ने, साबित ना होने तक सभी आरोपी ही होते हैं आप ही ने सिखाया है सर
हां यार ये भी सही बात है कल को अगर वो दोषी क़रार दिया जाता है तो...
तो सर बलात्कारी बाबा, बाबा बलात्कारी, बाबा बवाली, ढोंगी बाबा किसी नाम से शो बना लेंगे
ह्म्मम ये भी सही है, तो बुलाओ अपने उस देवदूत को उसके चरणों से अपना ऑफ़िस और न्यूज़ रूम शुद्ध और पवित्र कर लेते हैं बट मेक श्योर वो दढ़ियल नहा के आए
हाहाहा डन सर! शुक्रवार को बाबा का उद्धार करते हैं

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सोमवार, 9 मई 2016


 
राजेश खन्ना.. यह नाम सुनते ही एक मुस्कराता हुआ चेहरा ज़हन में आ जाता है, वो चेहरा जिसकी एक झलक पाने की ख़ातिर लोग सड़कों पर, सिनेमा घरों के बाहर, घंटों इंतज़ार किया करते थे। आज भी घर की बुज़ुर्ग महिलाओं से राजेश खन्ना का ज़िक्र करने पर उनके दिल की हूक साफ़ दिख जाती है। अगर आपको राजेश खन्ना की दीवानगी के बारे में जानना हो तो कभी घर में दादी, नानी, मां से पूछिए पता चल जाएगा राजेश खन्ना की दास्तां। यह नौबत तब थी जबकि ना तो मीडिया इतना सक्रीय था, ना ही सोशल साइट्स थीं।

राजेश की दिवानगी का आलम कुछ इस क़दर था कि पर्दे पर राजेश खन्ना की पलकें उठती गिरती थीं और इधर लड़कियों के दिल मचल उठते थे। लड़कियों ने उनका नाम अपने शरीर पर गुदवा तक रखा था और उनकी फ़ोटो से शादी भी कर ली थी। लड़कियां उन्हें अपने ख़ून से ख़त लिखकर भेजा करती थीं। बग़ैर पुलिस प्रोटेक्शन के उनका घर से बाहर निकलना नामुमकिन था। यहां तक कि उनकी कार भी नहीं बख़्शी जाती थी, लड़कियों के चूमने से लिप्सटिक के दाग़ पूरी कार पर होते थे।

एक बार बीमारी की वजह से काका को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा तब उस वक़्त के सभी बड़े निर्माताओं ने बीमारी का बहाना बना कर उनके आस-पास का कमरा बुक करा लिया। उनके लिये इतने फूल भेजे जाते थे कि बाद में अस्पताल ने उन्हें लेना भी बंद कर दिया।

उनके घर वाले उन्हें प्यार से काका बुलाते थे। काका का असल नाम जतिन खन्ना था। वह एक गोद ली हुई संतान थे इसलिये घर में सब उन्हें बहुत प्यार और दुलार करते थे। वह एकमात्र युवा कलाकार थे जिसके पास उस ज़माने में फ़ैन्सी स्पोर्ट्स कार हुआ थी और जिसे लेकर वो निर्माता, निर्देशकों के पास काम मांगने जाया करते थे। उन्होंने बाकी सितारों की तरह कभी संघर्ष नहीं किया, उनका जीवन कभी अभाव में नहीं गुज़रा। फ़िल्मफ़ेयर सितारा प्रतियोगिता में 10 हज़ार लोगों के बीच चयन होते ही उन्हें 1967 में जी.पी.सिप्पी की फ़िल्म राज़ में लीड एक्टर का रोल मिल गया। हालांकि आख़िरी ख़त उनकी पहली रिलीज़ हुई फ़िल्म थी, लेकिन उसके पहले ही काका जी.पी.सिप्पी की फ़िल्म राज़ साइन कर चुके थे। 1969 से 1972 तक काका की सारी फ़िल्में हिट रही थीं और वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार बन चुके थे। तब भारत में शायद ही किसी ने सुपरस्टार शब्द सुना था, मगर राजेश खन्ना ने सुपरस्टारका मतलब लोगों को बताया। सुपरस्टार क्या होता है यह समझाया। उन्होंने लगातार 15 हिट फ़िल्में दीं जो आज भी एक रिकॉर्ड है। लोग यहां तक कहते थे कि ऊपर आका और नीचे काका। वह रोमैंटिक फ़िल्मों के जैसे आका बन चुके थे।

उनकी फ़िल्मों के गाने आज भी लोग गुनगुनाते हैं। पंचम दा (आर.डी.बर्मन), किशोर कुमार और काका की तिकड़ी ने कई फ़िल्मों में हिट गाने दिये जैसे कटी पतंग, शहज़ादा, अपना देश, मेरे जीवन साथी, आपकी क़सम, अजनबी, नमकहराम, अगर तुम ना होते, अलग अलग और अमर प्रेम। काका की फ़िल्म में कौन सा गाना होगा यह ख़ुद काका तय करते थे। गाने को फ़िल्म में डालने से पहले काका को सुनाया जाता था और अगर वो गाना उन्हें हफ़्ते भर याद रह गया तो फ़िल्म में डाला जाता वर्ना नहीं। किशोर कुमार, राजेश खन्ना की आवाज़ बन चुके थे, अपने गाने की बोल लिखने के लिये आनंद बक्शी उनकी पहली पसंद थे। शर्मिला टैगोर, मुमताज़ उनकी पसंदीदा हीरोईनें थीं, मुमताज़ के साथ उन्होंने आठ से भी ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया और उनके साथ उनके अफ़ेयर के चर्चे भी ख़ूब रहे मगर 1973 में डिम्पल कपाड़िया के साथ राजेश खन्ना की शादी ने इन सभी चर्चाओं पर ब्रेक लगा दिया। लेकिन ये शादी ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकी और 1984 में दोनों अलग हो गये, लेकिन कभी तलाक़ नहीं दिया। राजेश खन्ना का नाम सबसे ज़्यादा अंजू महेंद्रू के साथ जोड़ा गया, मगर रंगीले मिज़ाज के राजेश इस रिश्ते को भी ज़्यादा दिन नहीं चला सके। अपनी बारात भी राजेश अंजू के घर के सामने से लेकर गए थे।

फ़िल्म अमर प्रेम के एक सीन के मुताबिक़ काका को शर्मिला टैगोर के साथ हावरा ब्रिज के नीचे से अपनी नाव लेकर गुज़रना था, लेकिन डायरेक्टर ने यह सोच कर ये सीन हटा दिया कि अगर लोगों को पता चल गया और ज़्यादा भीड़ इकट्ठा हो गयी तो लोगों को सम्भालना मुश्किल हो जायेगा। इस वजह से कहीं हावड़ा ब्रिज को कोई नुक़सान ना पहुंचे।

राजेश खन्ना ने फ़ैशन का ट्रेन्ड ही बदल दिया था, वह जो पहनते वो फ़ैशन बन जाता। उनके नाम का गुरू कुर्ता बाज़ार में ख़ूब बिका। शर्ट के ऊपर बेल्ट पहनने का फ़ैशन भी राजेश खन्ना ले कर आये। बताया जाता है कि राजेश खन्ना के बढ़ते पेट को छुपाने के लिए ही उनको यह छोटा गुरू कुर्ता पहनाया गया था।

1974 तक राजेश खन्ना ने हिंदी सिनेमा पर राज किया या यूं कहें कि हुक़ूमत की। मगर एंगरी यंग मैन अमिताभ बच्चन के तूफ़ानमें बनी दीवार के आगे काका टिक नहीं पाये, ऐसा लगा मानो काका को ज़ंजीर ने जकड़ लिया हो मगर वह शहज़ादे की तरह कोई अजूबा ना कर सके। इसकी बड़ी वजह काका का एक रोमैंटिक हीरो की इमेज में बँध कर रह जाना रहा। उसी दौर में जेपी आंदोलन भी हुआ जिसके कारण लोगों को सत्ता और नाकाम प्रशासन के प्रति विद्रोह कर के जीतता हुआ हीरो ज़्यादा पसंद आया, जो कि अमिताभ की फ़िल्मों में अधिकतर देखने को मिलता था। देखते ही देखते अमिताभ स्टार बन गये। वहीं दूसरी तरफ़ राजेश खन्ना का नाम लोग भूलने लगे। काका की एक बड़ी परेशानी यह भी थी कि वे सोलो हीरो या मेन लीड बनकर ही फ़िल्म में काम करना चाहते थे। काका का देर से सेट पर पहुंचना, सुबह तक पार्टियां करना भी उनकी ढलान की बड़ी वजह बने। काका अपनी सफलता को संभाल नहीं पाए। हमेशा चाटुकारों से घिरे रहना उन्हें पसंद था, मगर असफलता के दौर में उन्हें अकेलेपन ने भी घेर लिया।

कहते हैं अपने बुरे वक्त में राजेश खन्ना हर समय यह बुदबुदाते रहते थे कि हे ईश्वर मेरा इतना इम्तेहान मत ले कि तुझ पर से मेरा विश्वास ही उठ जाय।वे घंटों छत पर खड़े होकर आसमान को निहारा करते और बार बार यह सवाल दोहराते कि उनके साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है। उन्हें शराब की बुरी लत भी लग चुकी थी, जिसे वो मरते दम तक ना छोड़ सके।

नब्बे के दशक में उन्होंने राजनीति में कदम रखा और 1991 से 1996 तक वे नयी दिल्ली में एम.एल.ए के पद पर रहे। इस दौरान उनसे रोज़ाना हज़ारों लोग मिलने आया करते थे और उनके घर पर मानो जनता दरबार लग जाता था। उसी दौरान उन्होंने फ़िल्मों में फिर हाथ आज़माया और आ अब लौट चलेंजैसी फ़्लॉप फ़िल्मों में काम भी किया।
आज राजेश खन्ना बस एक पुरानी याद बन कर रह गये हैं, एक ऐसी सुनहरी याद जो भूलने से भी भूलायी नहीं जा सकती उनकी फ़िल्में, फ़िल्मों के गाने, उनका बाबू मोशाय बोलने का अंदाज़, उनका अभिनय.. भुलाया नहीं जा सकता। सच में काका को उनके फ़ैंस से कोई नहीं छीन सकता पर बड़ा सवाल यह है कि क्या आज भी उनके फ़ैस के दिल के किसी कोने में उनके लिये कोई जगह है ? क्या आज भी काका के पुराने गानों को देखकर काकी, दादी, नानी के उन गोदनों में टीस उठती होगी ?


P.S : “ज़िन्दगी लम्बी नहीं बड़ी होनी चाहिये बाबूमोशाय” (राजेश खन्ना का डायलॉग फ़िल्म आनंद से)


जब मैं कलकत्ता में रहता था तब मेरे पड़ोस में एक यादव जी रहते थे। यादव जी का अच्छा ख़ासा ट्रांस्पोर्ट का बिज़नेस था। यादव जी बड़े टिप-टॉप से रहा करते थे। हमेशा जूते, प्रेस किए हुए कपड़े पहनते और गाड़ी से चला करते थे। कुछ दिनों के लिए वे बीमारी की वजह से शहर से बाहर चले गए। मुझे उनसे कोई ख़ास मतलब नहीं था। मगर एक दिन महीनों बाद मैंने उन्हें देखा। पुराने कपड़ों और चप्पल में कमज़ोर से यादव जी को पहचानने में थोड़ी मुश्किल हुई। वे पैदल ही घूमते दिखे। उनकी शान-ओ-शौक़त ख़त्म हो चुकी थी। बाद में पता चला कि जब वे शहर से बाहर गए थे तब उनके अपने भाई ने उनके पूरे साम्राज्य पर क़ब्ज़ा कर लिया, और उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। उनके भाई ने धोखे से पावर ऑफ़ अटॉर्नी पर दस्तख़त करवा कर उनका सब कुछ अपने नाम कर लिया था। यादव जी की कहानी सुनते ही मुझे अब्बास-मस्तान निर्देशित 'बाज़ीगर' फ़िल्म याद आ गई। बाज़ीगर में भी कुछ इसी तरह मदन चोपड़ा (दलीप ताहिल) अपने मालिक विश्वनाथ शर्मा (अनंत महादेवन) का विश्वास पात्र बनकर उसके साम्राज्य पर क़ब्ज़ा कर लेता है और बाद में चोपड़ा के ही तर्ज़ पर अजय/विकी (शाहरूख़ ख़ान) उससे सब कुछ वापस हथिया लेता है। बात यह है कि फ़िल्मों का असर हम पर और हमारे समाज पर किस क़दर पड़ता है यह उसकी एक बानगी भर है।
बात अगर फ़िल्म की करें तो जब मैंने फ़िल्म देखी तो विलेन को पहचानना मुश्किल हो रहा था क्योंकि विकी/अजय और मदन चोपड़ा दोनों ही अव्वल दर्जे के कमीने थे। मगर शाहरूख़ ज़्यादा हैवान था क्योंकि उसने 3 मासूमों की निर्मम हत्या की थी। बावजूद इसके मुझे पहली बार कोई विलेन पसंद आया। यह विलेन स्टाइलिश था, रोमैंटिक था, गाना गाता और डांस भी करता था, लड़कियां भी उसपर मरती थीं। वह डायलॉग भी बड़े ठसक से बोलता था। इस विलेन की ख़ुमारी का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद बड़े ग्लास वाले चश्मे लोगों की नाक पर चढ़े मिले। भारत में आई-लेन्स का प्रचार और प्रसार भी हुआ। 
अब्बास-मस्तान ने एक बेहतरीन सस्पेंस थ्रिलर बनाई और शाहरूख़ ने अपने बेजोड़ अभिनय का परिचय देते हुए बताया कि उन्हें किंग ख़ान ऐसे ही नहीं कहते। उन्होंने हमें यह भी बताया कि कभी हार नहीं माननी चाहिये क्योंकि कभी-कभी कुछ जीतने के लिए कुछ हारना भी पड़ता है और हार कर जीतने वाले को 'बाज़ीगर' कहते हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

रंग रसिया 



रंग रसिया यानि रंगों से खेलने वाला एक रसिया..एक रसिक..वो रसिक जिसके लिए रंग और उसका कैन्वस ही उसकी प्रेमिका हैं..जिनसे वो प्रेम करता है..और वह भी पूरी शिद्दत के साथ..क्योंकि एक कलाकार के लिए उसकी कला से बढ़कर और कुछ भी नहीं..वो उसकी प्रेयसी है, तो उसकी संगिनी भी..वो उसका जीवन है, तो उसकी सांस भी..वो उसकी कल्पना है, तो उसकी प्रेरणा भी..और अगर जो वो दिल है तो उसकी धड़कन भी उसकी कला ही है..एक कलाकार तो मरता है मगर उसकी कला कभी नहीं..

रंग रसिया लेखक रंजीत देसाई की किताब ‘राजा रवि वर्मा’ पर आधारित, एक ऐसे ही कलाकार राजा रवि वर्मा की कहानी है जो एक रंगसाज यानि पेंटर है..रवि वर्मा को ‘राजा’ की पदवी ख़ुद किलीमनूर रियासत के राजा न दी थी, उसके चित्रों से प्रभावित होकर..मगर एक रंगसाज को एक प्रेरणा की ज़रूरत होती है..प्रेरणा जिससे वह प्रेरित होकर अपने कैन्वस पर चित्र उकेर सके, जिससे वह अपनी कल्पना को अपने पेंट ब्रश के ज़रिए चित्रित कर सके..

किलीमनूर (केरल) में जन्मे रवि वर्मा को उसकी प्रेरणा वहां नहीं मिली..वक़्त का पहिया कुछ ऐसा घूमा कि उसे बम्बई आना पड़ा..और यहां उसकी मुलाक़ात हुई सुगंधा से..जो सच में ख़ुशबू बिखेरती थी..सुगंधा की ख़ुशबू से रवि वर्मा के चित्र सुगंधित होने लगे..सुगंधा ने रवि वर्मा के चित्रों को एक नया आयाम दिया, एक नया स्वरूप दिया..जो सच में कल्पना से परे था..रवि वर्मा को सुगंधा में देवी दिखीं तो उसने देवियों के चित्र बनाए..रवि वर्मा को उसमे अप्सरा दिखी तो मेनका और उर्वशी के चित्र बनाए..रवि वर्मा ने फिर मैसूर के राजा के कहने पर चित्र बनाने के लिए पूरा देश घूमा, जिसके बाद रवि को उसकी किरणें मिल गयीं और उसने उपनी रोशनी से भारत ही नहीं पूरे विश्व को दमकाया..

रवि वर्मा ने पहली बार भारतीय कथाओं महाभारत, रामायण को अपने चित्रों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया..रवि वर्मा ने, विरोध के बावजूद देवी-देवताओं के चित्र भी बनाए..और उन्हें मंदिरों से मुक्त कराकर घर-घर तक पहुंचाया..रवि वर्मा ने प्रेम को भी चित्रित किया फिर चाहे वो प्रेम उर्वशी-पुरर्वा का हो, दुष्यंत-शकुंतला का हो और अर्जुन-सुभद्रा का ही क्यों ना हो सबको रवि वर्मा ने अपने कैन्वस पर उतारा..रवि वर्मा ने ऋषि विश्वामित्र के मेनका के प्रति काम प्रेम को भी उकेरा..और यह सब सिर्फ़ अपनी प्रेरणा सुगंधा के कारण..रवि की कल्पना को पंख लग चुके थे और वो उड़ता ही चला गया..

मगर 19वीं सदी के ग़ुलाम भारत को रवि वर्मा की ये कला कहां समझ आने वाली थी..तो उसपर हिंदू देवी-देवताओं का अपमान करने का इलज़ाम लगा..केस दायर किया गया और रवि वर्मा को जनता और हिंदू पंडितों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा..लेकिन रवि वर्मा को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा..और आखिरी दम तक उसने अपने चित्रों में रंग भरे..और रंगों से खेलता रहा..

रंग रसिया देखने के बाद आप रवि वर्मा के चित्रों के बीच, उसकी कलपना के बीच कहीं खो से जाते हैं..इसे निर्देशक केतन मेहता की क़ाबिलियत ही कहेंगे कि उन्होंने इतने ख़ूबसूरत मगर सहज तरीके से इस कहानी को फ़िल्मी परदे पर उतारा..रणदीप हुड्डा तो फ़िल्म दर फ़िल्म अपने अभिनय का लोहा मनवा रहे हैं..फ़िल्म में जब रणदीप, सुगंधा से उर्वशी और पुरर्वा के प्रेम का बखान करते हैं तो वह सीन देखते ही बनता है..सुगंधा बनी नंदना सेन ने भी अपने किरदार को बख़ूबी निभाया है.. वो रवि वर्मा की प्रेरणा भी थीं, चित्रों की मॉडल भी और उनकी प्रेमिका भी..नंदना ने सभी किरदार बोल्ड होते हुए भी बिल्कुल शालीनता और सहजता से पेश किया है..केतन मेहता ने उन्हें फ़िल्म की हीरोइन तभी बनाना तय कर लिया था जब वे नंदना से मिले और उनके घर पर राजा रवि वर्मा की 2 बड़ी पेंटिंगें लगी देखीं..रंग रसिया के टाइटल ट्रैक के अलावा और कोई गाना याद ही नहीं रहा..फ़िल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, निर्दशन और अभिनय हर तरफ़ से परफ़ेक्ट हैं...और यही फ़िल्म की जान हैं...इंटरवल के बाद फ़िल्म थोड़ी सी धीमी हुई मगर फिर से फ़िल्म ने अपना पेस बना लिया..

फ़िल्म देखने के बाद आपको पता चलेगा कि वो रवि वर्मा ही थे जिनके चित्रों की वजह से हिंदू देवी-देवता घर-घर तक पहुंचे..उस वक़्त अछूतों को मंदिर में नहीं घुसने दिया जाता था..मगर रवि वर्मा ने उनतक भी भगवान को पहुंचाया...फ़िल्म देखने के बाद आपको यह भी पता चलेगा की हिंदी सिनेमा में भी राजा रवि वर्मा का कितना बड़ा योगदान रहा है..हिंदी सिनेमा के जनक माने जाने दादा साहब फाल्के को भी मदद करने वाले राजा रवि वर्मा ही थे...

अगर आप कला प्रेमी नहीं हैं और उसे नहीं समझते तो फ़िल्म देखने कतई ना जाएं क्योंकि तब आपको यह फ़िल्म अश्लील और फूहड़ नज़र आएगी..

P.S.- जज (टॉम अल्टर): तुम क़ानून के बारे में क्या जानते हो ?
        राजा रवि वर्मा (रणदीप हुड्डा): जितना आप कला के बारे में जानते हैं.

अब मुझे मरने से कोई डर नहीं, तुमने जीते जी ही मुझे ईश्वर के दर्शन करा दिये ~ माधवराव (सचिन खेडकर) राजा रवि वर्मा (रणदीप हुड्डा) से


~ image courtesy santabanta.com

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

2011 में जब मैं कलकत्ता में था तब विधानसभा चुनाव होने वाले थे..सीपीएम को सत्ता में रहते 34 साल का बहुत ही लंबा वक़्त गुज़र चुका था..जनता एक बदलाव चाहती थी..हर तरफ़, हर कोई एक ही बात करता था और वो ये कि इस बार बदलाव चाहिये..मैंने ख़ुद तृणमुल कांग्रेस को वोट दिया था..इस बदलाव की आंधी ऐसी बही कि 294 सीटों में से 227 सीटें ममता बनर्जी की तृणमुल कांग्रेस को मिली..और ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनीं..कुछ ऐसा ही मैंने दिल्ली के चुनावों में भी देखा जब जनता ने कांग्रेस से त्रस्त होकर आम आदमी पार्टी की ओर रुख किया..और अरविंद केजरीवाल बने दिल्ली के मुख्यमंत्री..
बिल्कुल वैसी ही लहर मुझे इस बार लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के लिए दिख रही है..जो 2011 में ममता दीदी के लिये पश्चिम बंगाल में और 2013 में अरविंद केजरीवाल के लिए दिल्ली में देखी थी..एक राज्य में एक नेता के लिए लहर बहना कोई बड़ी बात नहीं है..मगर समूचे देश में एक नेता के लिए लहर बहना बहुत बड़ी बात है..आप बस में, ऑटो में या मेट्रो में सफ़र कर रहे हों हर तरफ़ लोग बदलाव की बात कर रहे हैं..वजह चाहे जो हो, नरेंद्र मोदी की चुंबकीय शख़्सियत या कांग्रेस का लंबा और चरमराया शासन..मगर जनता मोदी को ही एक मात्र विकल्प के तौर पर देख रही है..इस बार के लोकसभा चुनावों में बीजेपी अब तक की सबसे बड़ी जीत और कांग्रेस अपनी सबसे बड़ी हार की तरफ़ बढ़ती नज़र आ रही है..

शनिवार, 21 दिसंबर 2013


 


DHOOM 3

 

            Revenge is something that can make a person do anything. A revengeful person can go to an extreme level to take his revenge and never thinks whether the act of his is right or wrong. If his decision is correct or incorrect. Its just a passion and a passionate person never thinks of the end result. He just thinks that he is doing the rigorous act.

 

            Vijay Krishna Acharya’s 3rd version of Dhoom series is about a person Sahir (Aamir Khan). Sahir wants to take revenge from Western Bank Of Chicago. Due to non-payment of debts the bank shut Sahir father’s (Jackie Shroff) ‘The Great Indian Circus’ which caused the death of his father. At that very moment young Sahir decided to take revenge from the bank by destroying it and creating a situation to shut it down. Now the only goal in his life is to take revenge from the bank. This is the time when the game of chase between police and thief begins. Inspector Jai Dikshit (Abhishek Bachchan ofcourse!) follows Sahir like anything. But Sahir is also a very canning and smart thief who can’t be catched so easily as he has a trump card naming Samar. Samar is the suspense of the movie and of Sahir as well. But Jai who is a Super Cop cracks the suspense and catches Sahir!

           

            Vijay Krishna Acharya has written the story of Dhoom and has also written the Screenplay of Dhoom 2, but this time he has taken Director’s seat for Dhoom 3. Alas! He was unable to create the magic of previous Dhoom films. In the first half Aamir was seen running only and the cops keep him chasing, first half was a dud. Second half was gripping but till then it was too late for the viewer. The thing which was omitted in this part of Dhoom is the live burglary which we saw in previous parts. The stunts were also not so impressive. Bad timing of songs, dull story and Pritam’s weak tracks make the movie even more boring. 7 years is a very long gap for viewers to wait. There is nothing so influencing in Dhoom 3 to make it go ‘Dhoom’ again. There was a hope that Aamir will go one step ahead of what Rithik done in the previous version. But Aamir was not even been able to touch Rithik’s benchmark. DoP Sudeep Bhattacharya’s camera work is commendable. The BMW bike which Aamir rode in the movie is a thing one should watch out for.

           

            There is Aamir and only Aamir in the entire movie. Katrina naturally played her part of a glam doll. Playing the role of cops Abhishek Bachchan and Uday Chopra did nothing new. Jackie Shroff done a cameo of Aamir’s father. I don’t know how Mr. Perfectionist Aamir Khan nodded his approval for the movie.

 

            While watching a movie if I yawn even once I get to know that the movie is a big bore. When I watched Dhoom and Dhoom 2 I was glued to my seat, on the other hand when I was watching Dhoom 3 I yawned two times. If you are a big fan of Aamir Khan then this latest version of Dhoom series is only for you or else watch the older ones on Max!

 

 

P.S. : बन्दे हैं हम उसके हमपे किसका ज़ोर, उम्मीदों के सूरज निकले चारों ओर, इरादे हैं फ़ौलादी हिम्मती हर कदम, अपने हाथों किस्मत लिखने आज चले हैं हम..

 
धूम 3

 

धूम 3: बदला..बदला इंसान से कुछ भी करा सकता है..बदला लेने के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है..किसी भी हद तक जा सकता है..बदला लेते वक़्त वो ये तक नहीं सोचता कि वो सही कर रहा है या ग़लत..ये बस एक जुनून होता है जो सर पर सवार हो जाए तो बंदा कुछ भी कर गुज़रता है। क्यूँकि बदले की आग होती ही क़ातिल है।

 

      विजय कृष्ण आचार्य की धूम 3 भी बदले की आग में जलने वाले एक शख़्स- साहिर (आमिर ख़ान) की कहानी है। लोन ना चुका पाने के कारण बैंक उसके बाबा (जैकी श्रॉफ़) का दि ग्रेट इंडियन सर्कसबंद कर देता है जो साहिर के बाबा की मौत का कारण बनती है और साहिर के बदले की वजह भी। फिर साहिर बैंक को बर्बाद करके उसे बंद करने की ठान लेता है। बैंक बंद कराना उसकी ज़िंदगी का एक अकेला मक़्सद बन जाता है। फिर शुरू होता है चोर और पुलिस का खेल और इस खेल में इंस्पेक्टर जय दीक्षित (अभिषेक बच्चन) साहिर के पीछे हाथ धो कर पड़ जाता है।  मगर साहिर भी मंझा हुआ खिलाड़ी है क्यूँकि उसके पास एक तुरुप का इक्का है समर। समर ही फ़िल्म का और साहिर का सबसे बड़ा राज़ है, और इसी वजह से जय साहिर को पकड़ने में नाकाम भी होता है। पर जय तो इंडिया का सुपर कॉप है तो वो आख़िरकार साहिर का ये राज़ जान जाता है और उसको पकड़ भी लेता है।

 

      विजय कृष्ण आचार्य ने धूम की कहानी लिखी थी और धूम 2 का स्क्रीनप्ले लिखा था। धूम 3 में कहानी के साथ निर्देशन भी उनका ही है मगर वो धूम सीरीज की पिछली फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में धूम नहीं मचा पाए। फर्स्ट हाफ़ में तो आमिर सिर्फ भागते हुए ही नज़र आए। इन्टरवल के बाद फ़िल्म थोड़ी ठीक हुई मगर तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। जो बात सबसे ज़्यादा खली वो ये कि फ़िल्म में एक भी चोरी नहीं दिखाई गई जैसा कि दर्शक उम्मीद कर रहे थे। आमिर सिर्फ चोरी करने के बाद भागते हुए ही नज़र आए। फ़िल्म में कुछ ख़ास स्टंट सीन भी नहीं दिखे। गानों की बेकार टाइमिंग, बेदम कहानी और प्रीतम का कमज़ोर संगीत फ़िल्म को और बोरिंग बनाते हैं। 7 साल के लंबे इंतज़ार के बाद आई धूम 3 में धूम मचाने जैसा कुछ भी नहीं था। उम्मीद थी कि आमिर पिछले चोर रितिक से एक कदम आगे जाएंगे पर आमिर रितिक को छू भी नहीं पाए। फ़िल्म में सुदीप भट्टाचार्य का कैमरा शानदार है। बीएमडबल्यू की बाइक जो आमिर ने चलाई है वो फ़िल्म में आकर्षण का केंद्र है।

     

      फ़िल्म में आमिर ही छाए हुए हैं। कटरीना ने फ़िल्म में ग्लैमर का तड़का लगाया है। पुलिस के रोल में अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा ने कुछ नया नहीं किया है। मिस्टर पर्फ़ेक्शनिस्ट कहे जाने वाले आमिर ख़ान ने कैसे फ़िल्म के लिए हाँ कह दी पता नहीं।

     

      फ़िल्म देखते हुए अगर मुझे जम्हाई आ जाए तो समझ आ जाता है कि फ़िल्म बोरिंग है। धूम और धूम 2 देखते वक़्त मैं सीट से बिना हिले फ़िल्म देखता रहा वहीं धूम 3 देखते हुए मुझे दो बार जम्हाई आई। अगर आप आमिर के बहुत बड़े फैन है तो फ़िल्म आपके लिए ही बनी है वर्ना मैक्स पर धूम की पुरानी फ़िल्में देख लें!

 

P.S. : बन्दे हैं हम उसके हमपे किसका ज़ोर, उम्मीदों के सूरज निकले चारों ओर, इरादे हैं फ़ौलादी हिम्मती हर कदम, अपने हाथों किस्मत लिखने आज चले हैं हम..